महाकवि प्रसाद ( 30 जनवरी, 1890- 15 नवंबर,1937)

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चंद्रशेखर आजाद : मुझे लगता है कि मैं आपको हर बार मुश्किल में डाल देता हूँ , प्रसाद जी ।
जयशंकर प्रसाद : भारत को आजाद कराने के लिए पंडित चंद्रशेखर जो लड़ाई लड़ रहा है उसमे जो कुछ भी सहयोग कर सकूँ तो इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा । आप संकोच न करे इस यज्ञ में हमे भी आहुति देने दें ।
“हिमाद्रि तुंग शृंग से ,प्रबुद्ध शुद्ध भारती 
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला,स्वतंत्रता पुकारती
अर्मत्य वीर पुत्र हो ,दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है ,बढ़े चलो बढ़े चलो!”
                               ( जयशंकर प्रसाद)
आजादी के महानायक पंडित चंद्रशेखर आजाद जैसे  क्रांतिकारी मुखर  होकर अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे वही साहित्य से , शब्दों से  क्रांति की लौ जलाने वाले राष्ट्रवादी साहित्यकार उनकी मदद करके अपना फर्ज इस देश के लिए निभा रहे थे ।  उनमें से एक थे छायावाद के चार महान सतम्भों में से एक जिन्होंने प्रायः हिंदी साहित्य के हर विधा पर अपनी लेखनी चलाने का प्रयत्न किया । जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी , 1890 को वाराणसी में हुआ था । ये वाराणसी का प्रतिष्ठित और धनाढ्य परिवार के थे । जयशंकर जी के पिता बाबू देवी प्रसाद जी दान पुण्य और कलाकारों का सम्मान करने वाले थे । इनकी प्रारंभिक शिक्षा काशी में ही हुई थी।  प्रसाद जी 8 वर्ष के आयु से ही कविता लिखने लगे थे । परन्तु कम उम्र में ही माता पिता दिवंगत हो गए फिर उन्हें अपने कारोबार में हाथ बना पड़ा । आगे की शिक्षा उन्होंने घर पर रह कर पूरी की । उन्होंने बड़ी ऊर्जा के साथ संस्कृत , हिंदी , उर्दू  और फ़ारसी का अध्ययन  किया । इसके साथ ही इन्होने वेद , उपनिषद , साहित्य , धर्म , और दर्शन का भी गहन अध्ययन किया और इसका प्रभाव उनके काव्य चेतना पर पड़ा ।
कवितायेँ , नाटक , निबंध के रूप में प्रसाद जी ने एक से बढ़कर एक कई अमूल्य रचनाये प्रकाशित की । प्रसाद जी अपनी कविताओं का कोई भी उपयोग नहीं करते थे । बल्कि हमेशा सचेत रहते थे कि उनकी कविता और उनका व्यवसाय हमेशा अलग अलग रहे । प्रसाद जी की साहित्यिक जीवन में उनके लेखन में राष्ट्रीयता का बोध बहुत प्रखर था । उनके अनेक रचनाओं में राष्ट्र और राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति उनका अगाध प्रेम झलकता था । प्रसाद जी के प्रतिष्ठित और बहुत प्रशिद्ध नाटक ” चन्द्रगुप्त ” में एक स्थान पर सम्राट चन्द्रगुप्त की पत्नी जो कि यूनानी है भारत के प्राकृतिक सौंदर्य पर , अतिथि सेवा, ज्ञान गरिमा पर इतनी मोहित और मुग्ध है कि उनके ह्रदय से एक गीत निकल पड़ता है –
“अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
अरुण यह मधुमय देश हमारा।”
प्रसाद जी के सुप्रसिद्ध नाटक चन्द्रगुप्त का प्रकाशन 1931 में हुआ था । इससे पहले 1922 में अजातशत्रु, 1928 में स्कन्दगुप्त का प्रकाशन किया । प्रसाद जी ने नाटक के विधा को पुनः जागृत किया और उसे हिंदी साहित्य में सुदृढ़ स्थान दिलवाया।
इस सब के बीच हिंदी के सर्वकालिक श्रेष्ठ महाकाव्य कामयानी की रचना की जो की 1936 में प्रकाशित की । इसमें 15 सर्ग है , जिनके माध्यम से मानव जीवन के सम्पूर्ण संवेदना को प्रस्तुत किया । कामयानी को छायावादी काव्य का सर्वोत्तम प्रतीक मानते है । प्रसाद जी के ये कृति हिंदी साहित्य में अनमोल धरोहर के रूप में सदैव सुरक्षित है । हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही माने की 15 नवम्बर, 1937 को हिंदी साहित्य का एक चमकता सितारा टूट गया ।

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