फुलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार…

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~ मोनिका रावत

अर्थात् यह देहरी फूलों से भरपूर और मंगलकारी हो। सबकी रक्षा करे और घरों में अन्न के भंडार कभी खाली न होने दे।
यूँ तो देवभूमि अपनी अपार सुंदरता के लिए हमेशा से ही विख्यात है लेकिन उतराखंडी समाज हमे इस सुंदरता को बनाये रखने की प्रेरणा भी देता है।


प्रकृति के प्रति लगाव और प्रेम बनाये रखना पहाडियों का सबसे बड़ा कर्तव्य रहा है जिसे हम सब अनेक त्योहारों के रूप में संजोते आये हैं, उसी का एक उदाहरण है हमारा फूलदेई का त्यौहार।
उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्योहार मनाने की परंपरा है। कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में आठ दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है। वहीं, टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक भी यह पर्व मनाने की परंपरा है।


फूलदेई के दिन से शुरू हो रहा चैत का महीना उत्तराखंडी समाज के बीच विशेष पारंपरिक महत्व रखता है।इन दिनों उत्तराखंड में फूलों की चादर बिछी दिखती है और वातावरण में कई रंग और खुश्बू जुड़े मिलते हैं। चैत की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होकर इस पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डाले जाते हैं। इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है जिसमें दहलीजों पर फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं। बच्चे टोकरियों में खेतों-जंगलों से फूल चुनकर लाते हैं और सुबह-सुबह पहले मंदिर में और फिर हर घर की दहलीज पर रखकर जाते हैं। माना जाता है कि घर के द्वार पर फूल डालकर ईश्वर भी प्रसन्न होंगे और वहां आकर खुशियां बरसाएंगे। इस पर्व की झलक लोकगीतों में भी दिखती है।फूलदेई पूरी तरह बच्चों का त्योहार है। इसकी शुरुआत से लेकर अंत तक का जिम्मा बच्चों के पास ही रहता है। इस त्योहार के माध्यम से बच्चों का प्रकृति और समाज के साथ जुड़ाव बढ़ता है। यह हमारी उत्तराखंड के समृद्ध संस्कृति का पर्व है जो हमें प्रकृति से जोड़े रखता है और हमारा संबंध अटूट बनाता है।
तो आइये, हम भी प्रकृति की सुंदरता को बनाये रखने का प्रण लें और बच्चों का बचपन फूलों के रंगों सा भर दें।

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