भारत की आज़ादी सिर्फ़ आज़ादी नहीं बल्कि एक टूटे रिश्ते और बिखरे समाज के साथ आई, जिसका प्रभाव हज़ारों नहीं, लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों मासूम लोगों पर हुआ। एक ओर यह स्वतंत्रता का अमूल्य दिन था, तो दूसरी तरफ यह विभाजन की विभीषिका (Partition Horrors Remembrance Day) का साक्षी भी बना, जहाँ एक तरफ देश को सदियों की दासता से मुक्ति मिली, वहीं दूसरी ओर लाखों लोग बेघर हो गए।
ब्रिटिश शासन के अंत के साथ ही भारत में राजनीतिक रूप से स्वतंत्रता का नया अध्याय शुरू हुआ, लेकिन स्वतंत्रता की कीमत बहुत भारी थी। 1940 के दशक में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग, हिंदू-मुस्लिम के बीच बढ़ती खाई, और ब्रिटिश ‘फूट डालो और राज करो’ नीति ने विभाजन की नींव रखी। 1947 में माउंटबैटन योजना के तहत देश को धार्मिक आधार पर भारत और पाकिस्तान में बाँटा गया। सीमाओं के पुनर्निर्धारण के लिए रैडक्लिफ आयोग बनाया गया, जिसने जल्दबाजी में सीमाएँ तय कीं। परिणामस्वरूप, पंजाब और बंगाल के लाखों लोग अचानक “दूसरे देश” में पहुँच गए।
विभाजन से पहले ही भारत की सामाजिक संरचना में गहरी दरारें पड़ चुकी थीं। धार्मिक भेदभाव, संप्रदायवाद और सांप्रदायिक दंगे आम हो गए थे, जिससे समाज में अविश्वास और तनाव की स्थिति बन चुकी थी। विभाजन के समय यह अविश्वास विस्फोटक रूप में सामने आया—पड़ोसी एक-दूसरे के दुश्मन बन गए और हिंसा ने अभूतपूर्व रूप धारण कर लिया। लाखों लोग अपनी सांस्कृतिक जड़ों, पुश्तैनी घरों और रिश्तों से कट गए; महिलाओं के साथ अमानवीय अत्याचार हुए, बच्चे अनाथ हुए और परिवार बिखर गए।
इन सामाजिक दरारों का सीधा असर देश की आर्थिक संरचना पर भी पड़ा। पंजाब और बंगाल जैसे खाद्यान्न व औद्योगिक केंद्र दो देशों में बँट गए, जिससे न केवल उत्पादन प्रभावित हुआ बल्कि व्यापार और आपूर्ति व्यवस्था भी ठप पड़ गई। रेलवे, सिंचाई प्रणाली, उद्योग और बंदरगाहों का बँटवारा जल्दबाजी में किया गया, जिससे प्रशासनिक और आर्थिक अस्थिरता बढ़ी। विस्थापित लाखों लोगों के पुनर्वास के लिए बड़े पैमाने पर संसाधनों की आवश्यकता पड़ी और उन्हें नए सिरे से जीवन शुरू करना पड़ा। इस तरह सामाजिक विघटन और आर्थिक पतन एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए थे, और दोनों ने मिलकर स्वतंत्र भारत की नवजात व्यवस्था को गंभीर चुनौती दी।
विभाजन के समय भारत के सामने प्रशासनिक दृष्टि से भी कठिनाई थी। सीमाओं पर कानून-व्यवस्था बनाए रखना, दंगों को रोकना, और विस्थापित लोगों के पुनर्वास का प्रबंधन एक बड़ा कार्य था। स्वतंत्रता प्राप्त करते ही देश को नई संस्थाओं का निर्माण करना पड़ा, संविधान का ढाँचा तैयार करना पड़ा और लोकतंत्र की नींव रखनी पड़ी। इन चुनौतियों के बावजूद, भारत ने अद्भुत धैर्य और संकल्प का परिचय दिया। लाखों शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए शिविर, राशन व्यवस्था, रोज़गार योजनाएँ और नई बस्तियाँ बनाई गईं। संविधान सभा ने सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और धर्मनिरपेक्षता का वादा किया। यह वह समय था जब देश ने न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी नयी शुरुआत की।
विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस (Partition Horrors Remembrance Day) हमें यह याद दिलाता है कि नफ़रत और विभाजन कभी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकते, बल्कि वे एक नई समस्या का कारण ज़रूर बन सकते हैं। यह दिन हमें एकता और सहिष्णुता के सिद्धांतों को मज़बूत करने की प्रेरणा देता है। यह स्वतंत्रता का वह अध्याय है जो हमें हमारी ग़लतियों से सीखने, आपसी मतभेद और सामाजिक असमानताओं को कम करने का महत्व बताता है।